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अपने पराये

कृष्ण खटवाणी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2011
आईएसबीएन :81-263-1202-5

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प्रस्तुत है चौदह रोचक कहानियों का उत्कृष्ट संग्रह...

Apne Paraye a hindi book by Krishna Khatvani - अपने पराय - कृष्ण खटवाणी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपनी संवेदनशीलता, सौन्दर्यबोध और परिष्कृत रुचि के कारण सिन्धी साहित्य में कृष्ण खटवाणी का अप्रतिम स्थान है। उनका ‘अपने पराये’ चौदह कहानियों का संग्रह है। इन कहानियों में मानव जीवन के कितने ही आयाम उद्घाटित हुए हैं। कहीं प्रकृति के साथ मनुष्य के रागात्मक सम्बन्ध हैं तो कहीं एकान्तिक क्षणों में आन्तरिक लय पर चलते हुए अपने अस्तित्व की तलाश।

एक ओर शान्ति निकेतन में चित्रकला और साहित्य का अध्ययन तो दूसरी ओर उसी के समानान्तर भारत-विभाजन की त्रासदी ने खटवाणी को रचनात्मक संवेदनशीलता देने के साथ जिस मर्मान्तक पीड़ा से साक्षात्कार कराया उसे इन कहानियों में सार्थक अभिव्यक्ति मिली है।

कृष्ण खटवाणी की कहानियों की एक विशेषता यह भी है कि वे मनुष्य के सुख-दुख, प्रेम, मिलन और विछोह, एकाकीपन और दुर्बलताओं को बिना किसी वैचारिक आडम्बर के सहज रूप में दर्शाती हैं।
हमें विश्वास है कि अपने पराये संकलन की ये कहानियाँ हिन्दी पाठक का, उनकी मूल भाषा की तरह भरपूर रसास्वादन कराएँगी।

कला और कलाकार

बहुत कठिन है किसी भी विधा में उच्चकोटि का सृजन करना। काफी मेहनत तो करनी ही पड़ती है, कई कुर्बानियाँ भी देनी पड़ती हैं। अभी तक जो कुछ लिखा गया है उससे न मन को सन्तोष हुआ और न ही तृप्ति, लिखते समय दिल का भार अवश्य ही कुछ हलका महसूस करता हूँ। और प्रसन्नता होती है जब अपने ही रचे गये किरदारों के साथ कुछ समय बिताता हूँ। लेकिन कुछ दिनों बाद जब अपनी ही लिखी कहानियाँ पढ़ता हूँ तो विचार आता है-पत्रिकाओं में छपने हेतु भेजने के बदले इन्हें फाड़कर फेंक क्यों न दिया ? पर मैं दुर्बल हूँ, इतना साहस नहीं है। और किये गये परिश्रम को ध्यान में रखकर रचनाओं को किसी न किसी पत्रिका में भेज देता हूँ।

मेरे विचार से सृजन में सबसे महत्त्वपूर्ण और आवश्यक है कलाकार की ईमानदारी। जो कलाकार/लेखक अपने दिलों दिमाग और अपनी आत्मा की आवाज की ओर ईमानदार नहीं है वह पाठकों का मनोरंजन तो कर सकता है पर उनके हृदय की गहराई तक नहीं पहुँच सकता। दिल पर गहरा असर करने के लिए जरूरी है कि लेखक स्वयं के प्रति सच्चा हो। स्वयं के प्रति सच्चा होने का अर्थ है प्रकृति के कण-कण से, स्वयं से ईमानदार रहना-जो इतना सरल नहीं है।

कृष्ण खटवाणी


एक नन्हीं मुस्कान



कपड़े बदलते हुए राजन ने रीता से कहा, जो रसोईघर में रात के खाने की तैयारी कर रही थी :
‘‘लिफ्ट में आते समय डॉ. पमनानी को लिफ्ट से बाहर निकलते देखा, बिल्डिंग में शायद कोई बीमार है।’’
रीता ने हाथ में पकड़ी हुई खाने की चीजें मेज पर रखीं और प्लेंटे नेपकिन से पोंछते हुए कहा, ‘‘रति बीमार है, आज ऑफिस भी नहीं गयी।’’
खाने का पहला कौर मुँह में डालते हुए राजन ने कहा :‘‘आज ऑफिस में मुझसे काम नहीं हो पा रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे तबीयत ठीक नहीं है।’’
रीता ने राजन की ओर जाँचती हुई दृष्टि से देखा, फिर खाना खाते हुए कहा, ‘‘बुधवार की छुट्टी है, आप डॉक्टर से जाँच करवा लें।’’
‘‘बच्चे क्या कर रहे हैं ?’’

‘‘पढ़ रहे हैं, टर्मिनल टेस्ट होने वाला है।’’
दोनों चुपचाप खाना खा रहे थे। महानगर का कोलाहल धीरे-धीरे कम हो रहा था। रीता ने कहा, ‘‘भगवान के पास न्याय नहीं है।’’
राजन भीतर ही भीतर जैसे चौंक पड़ा। प्रश्नवाचक दृष्टि से पत्नी की ओर देखने लगा।
रीता ने कहा, ‘‘रति कितनी अच्छी स्त्री है, पर पति कैसा किस्मत में लिखा हुआ था। अच्छे-भले, खाते-पीते घर की लड़की कहाँ आ पड़ी। कहते हैं, उसका पति अब तो रोज पीकर आता है। पता है, तरक्की के बाद रति की तनख्वाह बढ़ गयी है ?’’
राजन कोई भी उत्तर नहीं सोच सका। वह चुपचाप खाना खाता रहा। दूसरे कमरे से बेटी की पुस्तक पढ़ने की आवाज आ रही थी।

बात को आगे बढ़ाते हुए रीता ने कहा, ‘‘रति अब अफसर बन गयी है। उसकी तनख्वाह एक हजार बढ़ गयी है।’’
राजन के चेहरे पर कुछ गम्भीरता आ गयी, जैसे कोई खास खबर सुनी हो।
‘‘बेचारी रति, सुबह को जल्दी उठकर घर का कामकाज करके बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करती है। सबको नाश्ता देकर, दोपहर का खाना बनाकर पति को देती है और खुद लेकर दफ्तर जाती है। सारा दिन दफ्तर में काम करने के बाद, घर लौटने पर फिर काम।’’ रीता के स्वर में स्त्री की पीड़ा छुपी थी।
राजन ने कोई उत्तर नहीं दिया। राजन का मन कुछ देर तक अपने भीतर कुछ टटोलता रहा। फिर एकाएक वह चौंक पड़ा। कई दृश्य उसकी आँखों के आगे चलतित्र की तरह घूमने लगे।

रोज सुबह उठने में देर हो जाने के कारण पहला विचार जो राजन के मन में आता है, वह यह कि उसकी रोज वाली बस कहीं छूट न जाए। वह हर काम जल्दी-जल्दी करता है। बार-बार घड़ी देखता है। कमोड पर बैठे-बैठे ही ब्रश करता है।
जल्दबाजी में नाश्ता भी पूरा नहीं करता है। कभी कभी पैंट की जिप लगाना भी भूल जाता है। कई बार पेन मेज पर छूट जाता है। बेल्ट भी लिफ्ट में उतरते-उतरते बाँधता है। रास्ते पर उसके पैर चलते नहीं, दौड़ते हैं। उसे अपनी ही फुर्ती पर आश्चर्य होता है। बस स्टॉप पर पहुँचकर रति को वहाँ लगी लाइन में खड़े देखकर, उसे राहत-सी होती है। रति का कतार में होना इस बात का संकेत है कि उसकी बस अभी नहीं आयी है। वह कुछ धीमे चलने लगता है। सोचता है चिन्ता करना, अपने आपको रौंदना, उसकी आदत बन गयी है। फालतू बातें और और भ्रम मन में पालना उसके स्वभाव का हिस्सा बन गये हैं। वह बस के बारे में ऐसे सोचता है, जैसे वह बस स्टैंड उसकी जिन्दगी की दौड़ की मंजिल हो।
रीता ने कहा, ‘‘राजन्, भगवान ने स्त्रियों का जीवन इतना दुःखमय क्यों बनाया है ? बदलते हुए इस समय में कहा जाता है कि सब कुछ बदला है, पर स्त्री का भाग्य कहाँ बदला है ?’’

राजन कुल्ला करके आ गया था। तौलिए से हाथ पोंछते हुए पूछा, ‘‘क्या मिस्टर साजनानी बहुत ज्यादा पीने लगे हैं ?’’
रीता ने कहा, ‘‘सुना है, अब तो धन्धे पर भी ध्यान नहीं दे रहे हैं। सारा धन्धा चौपट हो गया है। अब तो पत्नी की तनख्वाह से ही घर चल रहा है।’’
राजन ने सूखे स्वर में कहा, ‘‘यह धन्धा भी तो रति के पिता ने ही शुरू करवा कर दिया था।’’
रीता ने उसाँस भरते हुए कहा, ‘‘माँ-बाप बेटी के लिए सौ आशाएँ रखें, हजार कोशिशें, करें, पर किस्मत भी साथ दे, तब न।’’
राजन को दफ्तर में बिताया दिन याद आया। रीता से बोला, ‘‘मैं आज स्वयं को थका-थका अनुभव कर रहा हूँ। ऑफिस में काम करने में मन नहीं लग रहा था।’’
‘‘सोफे पर आराम से बैठकर टी.वी. देखिए, पर आवाज कम रखिएगा। बच्चों की पढ़ाई में डिस्टर्ब होगा। मैं जरा रति को देख आऊँ।’’

राजन सोफे पर बैठकर टी.वी. देखने लगा। चित्रहार चल रहा था। फिल्मी गीतों पर नायक-नायिका नाचते-कूदते चक्कर लगा रहे थे। पीछे के दृश्य बार-बार बदल रहे थे। नायिका कभी साड़ी में, कभी सलवार कुर्ते में तो कभी जीन्स, टी शर्ट में नाच रही थी। हमेशा की तरह आज भी यह कार्यक्रम राजन को बहला न सका। उसे लगा कि उसका मन उखड़ा-उखड़ा है। टी.वी. में नाचते लोग उसे मनुष्य न लगकर, बैटरी से चलने वाले प्लास्टिक खिलौने लग रहे थे। उसने उठकर टी.वी. बन्द कर दिया।
वह सोचने लगा, ‘इन्सान की जिन्दगी कितनी बेतुकी और थका देने वाली है। रोज-रोज वही काम करने पड़ते हैं, बिना किसी उद्देश्य के। जिन्दगी का जैसे कोई अर्थ नहीं रह गया है। जीना जैसे एक आदत बन गयी है।’ आज ऑफिस में काम करते समय, उसका शरीर और आत्मा दोनों थके हुए थे।
उसी समय रीता पास वाले घर में से वापस आई, बोली, ‘‘थोड़ी देर हो गयी, टी.वी. क्यों बन्द कर दिया ?’’
‘‘देखने में मजा नहीं आया।’’
‘‘आप आज कुछ थके-थके लग रहे हैं। मैं बच्चों को सुलाकर अपना बिस्तर ठीक कर आती हूँ। आप एस्प्रीन की गोली खाकर सोना, नींद आ जाएगी।’’ दरवाजे के पास पहुँचकर रीता ने पति की ओर देखा और फिर बोली, ‘‘रति को एक सौ दो बुखार था, पर बुखार में भी वह मुस्कुरा रही थी।’’

उसे देखकर रति के चेहरे पर एक छोटी-सी, पर अपनत्व भरी, कुछ दुःख-भरी, कुछ सुख-भरी दूज के पतले चाँद की तरह बारीक मुस्कुराहट दिखाई देती है। राजन जानता है, यह मुस्कान उसके लिए है और उसके अपने चेहरे पर उसकी जानकारी के बिना मुस्कुराहट तैर जाती है। वह सुबह की सारी तकलीफें, सारी परेशानियाँ भूल जाता है। जब वह बस में अपनी सीट पर बैठा रहता है और बस शहर की रणभूमि की सेनाओं के बीच रास्ता बनाती, बँधी आँखों वाले घोड़े की तरह दौड़ती रहती है तब वह नन्हीं मुस्कान, गुब्बारे की तरह फूलकर उसके हृदय को अनजानी प्रसन्नता से भर देती है। उसके हृदय से प्रवाहित होने वाला रक्त, उस मुस्कान को उसके सारे शरीर में फैला देता है। वह भूल जाता है कि रति भी इसी बस में कहीं बैठी है। सिर्फ वह मुस्कान उसके साथ होती है और उसके शरीर में टॉनिक की तरह ताकत और ताजगी का संचार करती रहती है।

उसने और रति ने आपस में कभी बात नहीं की है। उन्हें इतना पता है कि वे पड़ोसी हैं, एक दूसरे के पास रहते हैं। उनकी आत्माएँ एक दूसरे के इर्द-गिर्द फड़फड़ाती रहती हैं। राजन को लगता है, वह मृत नहीं है। बस में बैठे और मनुष्य भी निर्जीव नहीं हैं। रास्ते के दोनों ओर बनी इमारतें महज दीवारें नहीं हैं। उनके भीतर धड़कते हृदय हैं। शायद रति की यह नन्हीं मुस्कान, उसके निरर्थक जीवन को थोड़ी देर के लिए अर्थवान बना देती है।
बड़े शहरों में बस की यात्रा प्रायः लम्बी होती है। कभी-कभी लगता है कि यह यात्रा पूरी नहीं होगी, पर हरेक बस किसी मुकाम पर आकर रुक जाती है। सारे यात्री वहाँ उतरते हैं। बस खाली खोका बन जाती है। राजन का दफ्तर आखिरी स्टॉप के पास में है और रति का कुछ और दूर। दोनों बस के आखिरी स्टॉप पर उतरते हैं और लोगों की भीड़ में खो जाते हैं। खो जाने के पहले राजन की निगाहें रति की आँखों को ढूँढ़ लेती हैं। अनजाने में ही उसके चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है। प्रत्युत्तर में रति के चेहरे पर भी एक नन्हीं-सी मुस्कुराहट तैर आती है। यह सब राजन की आदत-सी बन गयी है। उसे लगता है कि जब उसकी आँखें रति की आँखों को ढूँढ़ लेती हैं, तब रति भी शायद उसकी निगाहों की प्रतीक्षा में होती है। शायद उसकी मुस्कुराहट न पाकर वह कुछ खो जाने जैसा अनुभव करती है।

रीता दूसरे कमरे में बच्चों को सुलाने की तैयारी कर रही थी और बच्चे किसी बात पर आपस में बहस कर रहे थे। अचानक राजन को विचार आया कि आज उसे रति की मुस्कुराहट नहीं मिली। क्या इसी कारण वह उखड़ा हुआ था ? आज ऑफिस में काम करने में मन भी नहीं लग रहा था। ऐसा कैसे हो सकता है ? रति और मुझे में कोई सम्बन्ध नहीं है। हमने आपस में बात करने या पास आने का भी प्रयत्न नहीं किया। मौका मिलने पर भी हम दोनों बस में कभी पास नहीं बैठे हैं। हम दोनों एक दूसरे के इतना पास या दूर हैं, जितने दो तारे। राजन ने स्वयं से पूछा, ‘क्या यह सत्य हो सकता है कि वह मुस्कुराहट मुझे सारे दिन ताजगी देती है ? सारा दिन मेरे चारों ओर उसका असर बना रहता है ?’’
उसी समय रीता कमरे में आयी। बोली, ‘‘मैंने बिस्तर बिछा दिया है।’’ दोनों सोने के कमरे में आये। राजन ने रोज की तरह पलंग पर बैठते ही टेबल-लैम्प नहीं जलाया।
रीता ने आश्चर्य से पूछा : ‘क्या आज किताब नहीं पढ़ेंगे ?’’ राजन की आदत थी कि सोने के पहले वह कुछ देर तक कोई किताब या पत्रिका पढ़ता था।

‘नहीं।’ उसने कहा और तकिए पर सिर रख कर लेट गया।
बत्ती बुझाकर रीता, राजन के पास लेट गयी। बोली, ‘‘रति को डॉक्टर कह गया है कि उसे हफ्ते भर तक ऑफिस नहीं जाना चाहिए।’’
राजन अँधेरे में छत की ओर देखते हुए सोचने लगा कि इस सप्ताह, रति की मुस्कुराहट पाए बिना, उससे ऑफिस में काम कैसे होगा ?


पाँच कुत्तों वाला आदमी



शहर का वह शान्त रास्ता जिसके दोनों ओर युक्लिप्टस के लम्बे पेड़ हैं, रात की नींद के बाद अलस्सुबह जागता है। वे लोग जो अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत हैं, उस रास्ते पर तेज कदमों से चलते नजर आते हैं, बुजुर्गों का अन्दाज सरसरी होता है। जब सूर्य का आगमन उस रास्ते पर गुलाबी किरणें बिखेरता है तब एक सुन्दर दृश्य देखने में आता है। गहरे रंग की कमीज और पैण्ट पहने एक गोरा-चिट्टा अधेड़ अपने पाँच कुत्तों के साथ रास्ते पर दिखाई देता है। कुत्ते उसके चारों ओर घूमते रहते हैं। कुछ आगे पीछे और कुछ आस-पास, वे अपनी फुर्तीली टाँगों से ऐसे दौड़ते और चक्कर लगाते हैं, जैसे अपने मालिक का इस खूँख्वार दुनिया से बचाव कर रहे हों। छोटे-छोटे कुत्ते कद एक फुट के लगभग। बदन पर घने रेशमी लच्छेदार बाल। एक सफेद, दो भूरे दो कत्थई रंगों के पाँचों कुत्ते दूर से खिलौने लगते हैं जो बैटरी से दौड़ रहे हों। सूरज के हाथ में छड़ी होती है जिसका भय दिखाकर वह आवारा कुत्तों को अपने कुत्तों के पास आने से रोकता है और थोड़ी ऊपर उठाकर सामने से आते हुए मित्रों का अभिवादन करता है।

सुबह ही इस चहल कदमी में प्रायः वही लोग रहते हैं और आपस में उनका भाईचारा-सा बन जाता है। सामने से आ रहे व्यक्ति को देखकर सूरज सिर ऊपर उठाकर ‘गुडमार्निंग’ कहता है। यह कहते वक्त सूरज का स्वर प्रसन्नता से भरा होता है और उसका चेहरा सूर्य की किरणों में दमक रहा होता है। कभी सामने से आ रहा व्यक्ति सूरज के कहने के पूर्व ‘गुडमार्निंग’ कहता है तो जोर से कहा गया यह अभिवादन सुनकर सूरज का चेहरा खुशी से खिल उठता है। वह उस व्यक्ति के प्रति आत्मीयता का अनुभव करता है और ठहाका लगाकर छड़ी ऊपर कर उसे जवाब देता है, ‘वैरी गुडमार्निंग’। पता नहीं क्यों देखनेवालों को सूरज के ये ठहाके विचित्र लगते हैं जैसे सूरज किसी मंच पर खड़ा होकर हँसी-ठहाके पेश कर रहा हो, पर सूरज अपनी ही रौ में कभी आगे बढ़कर उससे हाथ मिलाता है तो कभी उसके कन्धे पर हाथ रखकर कहता है, ‘‘गॉड ब्लेस यू’।

धूप में गर्मी आते ही सूरज घर आकर कुत्तों के साथ सीधा बाग में जाता है।
बाग के एक कोने में कुत्तों के लिए पक्का घर बना हुआ है। कुत्तों से विदा लेने में उसे कुछ समय लगता है। कुत्ते उसे छोड़ना नहीं चाहते हैं पर सुबह की यह छोटी-सी सैर उसे कुछ थका-सा देती है और वह विश्राम की आवश्यकता अनुभव करता है। कुत्तों से विदा लेकर वह अपने ‘बेडरूम’ में आता है। अत्याधुनिक तरीके से सजाया गया कमरा पता नहीं क्यों उसका स्वागत नहीं करता है। वह जब भी अपने शयनकक्ष में होता है स्वयं को अजनबी महसूस करता है जैसे किसी दूसरे के कमरे में वह बिन बुलाए घुस आया हो। उस कमरे में आने पर उसे लगता है जैसे वह बेकार है। कोई काम उसके लिए रुका हुआ नहीं है। और वह एक ऊँचे पूरे शख्स से बदलकर बौना बन गया है। सूरज गलीचे पर नंगे पैर धीरे-धीरे चलता है कि कहीं बड़े-से पलंग पर नींद में डूबी मेनका जाग न जाए। कभी-कभी वह उचटती दृष्टि मेनका पर डालता है और दीवारों से पूछता रहता है कि वह क्या करे ? काम ढूँढ़ना और काम का न मिलना उसके जीवन का अंग बन चुका है। कभी वह दबे पैरों चलता हुआ शयनकक्ष के पास वाले बराण्डे में समाचारपत्र ले आता है और पढ़ने की कोशिश करता है, पर आँखों के सामने अखबार होते हुए भी उसकी आँखें कुछ नहीं पढ़तीं और अगर बड़े-बड़े अक्षरों में छपे मुख्य समाचार पढ़ती भी हैं तो वह उसके दिमाग तक नहीं पहुँचाती हैं।

समाचार पत्र पढ़ना या इस दुनिया के क्रियाकलापों में गहरे पैठना कभी भी उसके स्वभाव में नहीं रहा है। किसी जमाने में वह कुछ फिल्मी समाचार पत्र और अमेरिकन सेक्स पत्रिकाएँ मँगवाता था पर वह सिर्फ उनके चित्र देखता था, पढ़ता नहीं था।
अचानक घण्टी की आवाज समूचे घर को चौंका देती है। मेनका जागते ही हाथ बढ़ाकर पलंग के ऊपर लगे बटन को दबाती है और घण्टी की तेज आवाज से सारा घर जाग उठता है। नौकर-चाकर जान जाते हैं कि मालकिन नींद के अदृश्य लोक से वापस आ गयी हैं और घर की दुनिया में हलचल शुरू हो जाती है। सोफे पर बैठा सूरज आँखें ऊपर कर मेनका की ओर निहारता है। रेशमी कम्बल सरकारकर मेनका बाँहें मोड़ते हुए शरीर ऊपर उठाती है। सूरज की दृष्टि झीनी नाइटी से छनकर मेनका के मुलायम शरीर को छूती है। गोरे सुड़ौल शरीर को नाइटी ढँकने के बजाय और अधिक निर्वस्त्र करती है। सूरज को यह दृश्य भाता भी है और वह उस को धिक्कारता भी है, पर जब वह पलंग से नीचे उतरने के लिए नाइटी को टखनों से खींचकर घुटनों तक ले जाती है तो सूरज की निगाहें उसकी टाँगों पर टिकने से खुद को रोक नहीं पातीं।
‘‘गुडमार्निंग’’ सूरज अपने स्वर में आत्मीयता भरने की कोशिश करते हुए अभिवादन करता है।

‘‘गुडमार्निंग’’ मेनका का स्वर इतनाधीमा और सतही होता है कि वह आधे कमरे तक ही पहुँचता है और वह स्वयं को गिरने से बचाती हुई मखमली स्लीपर पहनकर बाथरूम में चली जाती है।
नौकर चाय की ट्रे व कुछ बिस्कुट सोफा के सामने पड़ी तिपाई पर रख जाता है। स्थिर बैठा सूरज चाय की ओर देखता रहता है।
जब मेनका बाथरूम से वापस आकर तिपाई के पास ही रखी कुर्सीपर बैठती है तो सूरज आगे सरककर हाथ बढ़ाकर चाय बनाने लगता। मेनका टाँग पर टाँग रखकर बैठी रहती है और उसकी आँखें सतही तौर पर हाथों के नाखूनों पर लगी नेलपॉलिश को देखती रहती हैं।
चाय का कप प्लेट में रखकर सूरज मेनका को देता है और खुद एक हाथ में बिस्कुट और दूसरे हाथ में चाय का कप उठाता है। मेनका चाय का एक घूँट भरकर पूछती है, ‘‘कल कोई डाक आयी ?’’

डाक से तात्पर्य, देहरादून के किसी बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहे सूरज और मेनका के दो बच्चों के समाचार से है।
कई वर्षों से सूरज कोई भी सीधा जवाब नहीं दे सका है, बात को घुमा फिराकर कहना उसकी आदत बन चुकी है। जिस प्रश्न का उत्तर संक्षिप्त होना चाहिए उसका जवाब वह खींचता है। और जिस प्रश्न का उत्तर सिलसिलेवार होना चाहिए उसे टूटे-फूटे वाक्यों में देता है। और ज्यादा बोलने की भी सूरज को आदत पड़ गयी है। कई बार तो वह बेमतलब हँसने भी लगता है। मेनका उसकी ओर ऐसी घृणा से देखती है कि सूरज का हँसना बीच में ही रुक जाता है।
मेनका चाय के दो-तीन घूँट भरती है, छोटे-छोटे घूँट जैसे होंठ चाय पी रहे हों, मुँह नहीं। फिर अचानक कप-प्लेट तिपाई पर रखकर उठ खड़ी होती है, कहती है, ‘‘आज बारह बजे अकाउण्टेण्ट आएगा, कुछ पेपर्स साइन करने हैं उसे ज्यादा इन्तजार मत करवाना। वह बहुत ‘बिज़ी’ है।’

सूरज के उत्तर की प्रतीक्षा न करके वह बाथरूम में चली जाती है। उसकी जिन्दगी के रोज दो-चार घण्टे वहीं गुजरते हैं।
सूरज समझ जाता है कि यह संकेत था कि अकाउण्टेण्ट से सवाल जवाब नहीं करना है। जहाँ वह ऊँगली रखे वहाँ हस्ताक्षर करना है।

सूरज के भीतर की आह अब बाहर नहीं निकलती है, भीतर ही घुटकर मर जाती है। वह एक और बिस्कुट उठाता है और शान्ति से चाय पीने लगता है। अपने कमरे में चारों तरफ निहारते हुए उसे काफी कुछ याद आने लगता है। उसके विवाह से पूर्व यहाँ दूसरा पलंग था। आधी रात के बाद वह घर आता था और पलंग पर कटे वृक्ष की तरह गिरा रहता था। जब वह जागता था तो सुबह का पहला पहर बीत चुका होता था और विवाह के बाद तो उसने मेनका को इस कदर चाहा था जैसे कोई अपनी मनपसन्द चीज को अन्तिम बूँद तक चाट जाने के बाद भी जीभ चटखारता रहे। मेनका खुद को छुड़ाने के लिए आरजू-मिन्नतें करती पर वह एक नहीं सुनता था। नींद की खुमारी में डूबी झोंके खाती मेनका को वह कामशास्त्र के अंश पढ़कर सुनाया करता था। अब उस दमघोंटू कमरे के खालीपन को ताकते हुए सूरज स्वयं से पूछता है कि यह सब कैसे हुआ ? क्या दुनिया में ऐसा भी हो सकता है ? कोई स्त्री क्या इतनी निष्ठुर भी होती है ?

बाथरूम के बन्द दरवाजे की ओर एक नजर फेंककर सूरज उठ खड़ा होता है। चप्पलें पहनकर बाग की ओर बढ़ता है। बाग में जहाँ कुत्तों के लिए घर है उसी के पास एक विशाल गुलमोहर का पेड़ है। उस पेड़ के नीचे संगमरमर की एक बेंच है। गिरे हुए लाल फूल जमीन पर चारों ओर बिखरे रहते हैं। सूरज उन फूलों को देखकर आश्चर्य में पड़ जाता है। सोचता है, ये फूल मरकर भी जीवित कैसे हैं ? सूरज बेंच पर बैठकर एकएक कुत्ते को उसके नाम से पुकारता है। अपना नाम सुनकर हरेक कुत्ता दौड़ते-कूदते उसकी गोद में आ गिरता है। सबसे ज्यादा प्यार सूरज सफेद कुत्ते को करता है। इस कुत्ते की आँखें बेहद सुन्दर हैं। उसकी आँखों के पास भूरे रंग की दो रेखाएँ हैं। इस कुत्ते की आँखों में निहारते सूरज को अपनी माँ याद आती है जिसकी जीते जी किसी ने कद्र नहीं की। पैसा कमाने में व्यस्त सूरज के पिता ने तो पत्नी को जैसे भुला ही दिया था। वह साधारण स्त्री घर में भरपूर पैसा आने के बाद भी सादी-सी साड़ी में लिपटी अपना अधिकांश समय पूजाघर में ही व्यतीत करती थी। काफी समय बाद जब सूरज का जन्म हुआ था तो उस धार्मिक महिला के मन में यह डर बैठ गया कि जिस तरह सूरज पिता ने अपने भाइयों को धोखा दिया था, उसका फल जरूर सूरज के पिता या उसके बच्चों को भुगतना होगा।





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